बड़े सुनियोजित इल्म से,,
चन्द्रमा रौशन है।
मेरे हृदय के गोपी को,,
स्मरण है प्रिय के,,
सांझ से ही,,
अम्बर ने जगा रखी है,,
अखंड जोत।
के तेरे स्वर्णिम स्वरूप का,
कोई हर्फ भी,,
श्याम मेघों के लपट में ना पड़े।
के आखिर रजनी,,
मेरे विरह के प्रति क्षण की जवाबदेह है।
मेरे रौशनदान से ताकती,,
हर स्याह सिसक से वाक़िफ है।
अक्सर ही,,
पढ़ती है मेरे गीले तकिये से,,
उठा कर वेदना के गीत।
तुमने पूर्णमासी के पूर्व,,
अबतक सुध भी ना ली।
क्या इक रात प्रयाप्त है?
मेरे लिए तो नहीं।
असंख्य उलाहने मै लिख दूंगी,,
आसमां में।
तुम पढ़ कर उदास मत होना,,
क्या है ना,
मेरी कलम थोड़ी मार्मिक है।
संवेदना समान प्रेयसी की भांति ही तो है।
चलो पन्नो में ना उलझाओ,,
श्रृंगार करना है मुझे,,
के कहीं रात ये,,
गुज़र ना जाए।
इस बार भी तुम्हें लिखते लिखते।।
"प्रतीक्षारत_गोपी"

खूबसूरत...
जवाब देंहटाएंअद्भुत अनु❤️👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर