प्रस्तावना
"बेटा, गरीब का सपना देखना भी एक जंग है... और उसे पूरा करना युद्ध।" — ये शब्द अर्जुन के पिता ने तब कहे थे जब अर्जुन ने पहली बार कहा, "पापा, मैं डॉक्टर बनूंगा।"
राजस्थान के एक छोटे से गाँव ‘खेजड़ली’ में, जहाँ मिट्टी की खुशबू में मेहनत बसती थी, वहाँ अर्जुन नाम का एक लड़का था — नाज़ुक सा, कमज़ोर सा, लेकिन उसके इरादों में आग थी। उसके सपनों की ऊँचाई इतनी थी कि खेतों की मेड़ों से शुरू होकर आसमान तक जाती थी।
1. बचपन की धूल और सपनों की चमक
अर्जुन के घर में सब कुछ था—माँ का प्यार, पिता की मेहनत, बहन की मुस्कान... बस नहीं था तो पैसा। कच्चा मकान था, छत से पानी टपकता था, लेकिन माँ की गोद हमेशा सूखी रहती थी। अर्जुन का स्कूल जाना भी कभी कभी उस दिन की कमाई पर निर्भर करता जब पिता को खेत में काम मिल जाए।
दोपहर को स्कूल की छुट्टी होती, तो बाकी बच्चे बस्ता फेंककर क्रिकेट खेलने भागते। अर्जुन घर की ओर दौड़ता, क्योंकि उसे चाय की दुकान पर बर्तन धोने होते थे।
उसका सवाल हमेशा एक ही होता:
"अगर मैं अभी हार गया, तो बड़ा होकर क्या बनूंगा?"
2. माँ की ममता और बाप की चुप्पी
एक रात जब अर्जुन किताब पढ़ते-पढ़ते सो गया, तो माँ ने उसके माथे पर हाथ रखा। उसकी उंगलियों में दरारें थीं — दिनभर बर्तन मांजने से। माँ बोली,
"बेटा, तू पढ़ ले... मैं सब कर लूंगी। तू डॉक्टर बनेगा तो सबका दुख मिटा देगा।"
पिता बहुत कम बोलते थे। सिर्फ एक बार उन्होंने अर्जुन को पास बुलाकर कहा,
"हम खेत जोतते हैं, तू ज़िंदगी जोतना... तेरा हल कलम होगा।"
3. किताबें पुरानी थीं, पर इरादे नए
अर्जुन की किताबें फटी थीं, उसके जूते पुराने थे, और बैग में कोनों से सिलाई उधड़ी हुई थी। लेकिन हर पन्ना पढ़ते समय उसकी आँखों में डॉक्टर बनने का सपना चमकता था।
गाँव में मोबाइल टावर तक नहीं था, लेकिन अर्जुन को एक पुराना रेडियो मिला था। उसमें जब “मन की बात” सुनता, तो वो खुद को उसमें खोजता।
वो सोचता — "जब कोई चायवाला प्रधानमंत्री बन सकता है, तो एक चाय वाला लड़का डॉक्टर क्यों नहीं?"
4. ताने, मज़ाक और अकेलापन
स्कूल में बच्चे कहते, "अबे तू डॉक्टर बनेगा? तू तो बर्तन धोता है!"
अर्जुन सिर्फ मुस्कुराता और जवाब देता, "तुम लोग सिर्फ बोलते हो, मैं कर के दिखाऊंगा।"
टीचर्स भी अक्सर उम्मीद छोड़ चुके थे, लेकिन एक टीचर थे — "रामप्रसाद सर"। उन्होंने अर्जुन की आँखों में कुछ अलग देखा।
एक दिन बोले,
"बेटा, तुझमें आग है। दुनिया नहीं देखेगी, पर तू देख। ये सपना तुझे ही पूरा करना है।"
रामप्रसाद सर ने अर्जुन को कुछ पुराने NEET के पेपर दिए। अर्जुन ने वो पेपर ऐसे संभाले जैसे कोई बच्चा अपनी पहली कमाई का नोट संभालता है।
5. संघर्ष का असली चेहरा
NEET की तैयारी आसान नहीं थी। अर्जुन के पास ट्यूशन के पैसे नहीं थे। वो गाँव के एक मेडिकल स्टोर पर काम करने लगा ताकि दवाओं के नाम सीख सके और रोज़ रात को मेडिकल साइंस की बेसिक किताबें पढ़े।
रात को जब सब सोते, अर्जुन लालटेन की मद्धम रोशनी में पढ़ता। गर्मियों में पसीना टपकता, सर्दियों में उँगलियाँ काँपती थीं। लेकिन उसके हाथ में कलम होती थी, हथियार की तरह।
एक दिन, उसकी माँ की तबियत बिगड़ी। अस्पताल ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। अर्जुन खुद साइकिल पर माँ को 10 किलोमीटर दूर ले गया। डॉक्टर ने कहा—"टाइम से लाते, तो परेशानी कम होती।"
वो रात अर्जुन ने माँ के पैरों में बैठकर बिताई और मन में ठान लिया —
"अब किसी माँ को इलाज के लिए तरसने नहीं दूंगा।"
6. पहली हार और आत्मा का दहकता सवाल
पहले प्रयास में अर्जुन NEET में सफल नहीं हो पाया। उसने 498 अंक पाए — जबकि कटऑफ 502 था।
गाँव वालों ने ताना मारा —
"बोला था ना, सपनों से पेट नहीं भरता!"
"अरे ये तो बर्तन धोने वाला ही रहेगा!"
अर्जुन ने कमरे में खुद को बंद कर लिया। माँ ने बाहर से आवाज़ दी,
"बेटा, हार से डर गए क्या? मैं तो हर रोज़ हारती हूँ गरीबी से, फिर सुबह उठकर फिर से लड़ती हूँ... तू क्यों नहीं?"
अर्जुन की आँखों से आंसू बह निकले। उसी रात उसने खुद को फिर से खड़ा किया। ये तय कर लिया कि अगली बार NEET का इतिहास बदल कर आएगा।
7. दूसरी तैयारी और तपस्या का रूप
अब अर्जुन सुबह चार बजे उठता, खेत में पिता की मदद करता, फिर पढ़ाई करता। दो घंटे मेडिकल स्टोर में काम करता, फिर रात तक किताबों में खोया रहता।
रामप्रसाद सर ने गाँव में एक पुरानी लाइब्रेरी खुलवाई, जहाँ अर्जुन और कुछ और बच्चों को पढ़ने की जगह मिली। इंटरनेट का कोई सहारा नहीं था, लेकिन अर्जुन के पास जिद थी।
उसने अपने कमरे की दीवार पर एक पंक्ति लिखी थी:
"मैं हार मानने के लिए नहीं बना, मैं इतिहास रचने के लिए बना हूँ।"
8. जीत की सुबह
अगले साल जब NEET का रिजल्ट आया, अर्जुन ने 632 अंक हासिल किए। पूरा गाँव खुशी से झूम उठा।
जिस स्कूल में कभी उस पर हँसी उड़ती थी, उसी स्कूल ने उसे मंच पर बुलाकर शॉल पहनाया। रामप्रसाद सर की आँखों में आंसू थे, और पिता की आँखों में गर्व।
सरकारी मेडिकल कॉलेज में उसका दाखिला हुआ। उसकी माँ ने पहली बार अपने बेटे को सफेद कोट में देखा और बोली —
"अब तू सिर्फ मेरा नहीं, इस गाँव का बेटा है।"
9. वापसी — असली जीत का अहसास
पाँच साल बाद जब अर्जुन डॉक्टर बनकर गाँव लौटा, तो लोग उसे "डॉक्टर साहब" कहकर बुलाने लगे। वहीं बच्चे जो कभी उसका मज़ाक उड़ाते थे, अब उसके पास सलाह लेने आते थे।
अर्जुन ने अपनी पहली सैलरी से गाँव में एक फ्री हेल्थ कैम्प लगाया और एक स्टडी लाइब्रेरी शुरू की—जहाँ कोई भी बच्चा आकर मुफ्त में पढ़ सकता था।
वो अक्सर कहता:
“मेरे जैसा कोई और बच्चा सिर्फ इसलिए पीछे न रह जाए क्योंकि उसके पास पैसा नहीं है।”
समापन:
आज अर्जुन एक सफल डॉक्टर है, लेकिन उसके कमरे की दीवार पर वही पंक्ति अब भी लिखी है:
"मैं हार मानने के लिए नहीं बना, मैं इतिहास रचने के लिए बना हूँ।"
🌟 सीख:
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हालात कभी किसी का भाग्य नहीं बनाते, हमारे फैसले बनाते हैं।
