डायरी से सरक के,,
औंधे मुंह गिर पड़ी।
व्याकरण के बोझ से,,
दबी सेहमी कविता।
उस काल में तुम्हारा साथ पाने को,
विचलित सी।
अपनी बेचारगी पे तरस खाती,,
अपनी काया को छोड़ती,,
गिर पड़ी तेरे गोद में।
शायद तेरे आलिंगन में,,
पुन: यौवन चाहती थी।
खुद को अलंकार में,,
विभूषित कर।
अपनी ही मुक परछाई पे,,
इठलाना चाहती थी,,
मेरी भोली कविता।
तुम्हारे स्पर्श मात्र से,,
उसकी शिथिल पड़ी चेतना,,
मुस्कुराने लगी।
जैसे आधी जली बाती में,,
पड़ जाए दिए भर तेल।
परदे की किनारी पकड़,,
मेरी मुद्रा पुलकित हो,,
तुम्हारे हाथों मेरी ही कविता को,,
लौट आने के इंतजार में खड़ी थी।
सुनो,,
गुप्त ही रखना,,
मेरी कविताओं का ये ज़ायका।
किसी लेखक की बुरी नजर से।।"
"लेखिका"✍️

इश्क़
जवाब देंहटाएंSukriya
हटाएंoooo maaaagoooo turu lob
जवाब देंहटाएं😂😂
हटाएंवाह 🙌
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